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Wednesday, March 24, 2010

दहेज (एक अभिशाप)

प्रथा दहेज की , पीडाओं के सेज की
कलयुग का अभिशाप है ,
या लड़के की योग्यता अथवा लड़की की सुंदरता का माप है ,
त्रेता में इसी दहेज का अपमान हुआ, बिन दहेज के सीता का सम्मान हुआ
उसी सीता को जिसे आप पूजते हैं , फिर दहेज लेने कि क्यों सोचतें हैं
शायद यह बात आपके परम्पराओं में घर कर गयी है, अथवा भावनाओं मे बस गयी है
संपन्न पिता कि खुशियों का समाधान है, उनके लिए दहेज देना आसान है
पर सहना गरीब कि बेटी को पड़ता है, जिसे कम दहेज के लिए भुगतना पड़ता है
ऐसी कन्याएं सताई जाती हैं अथवा जलाई जाती हैं
उद्देश्य कुछ और नहीं बस यही होता है पिछले कम मिले हुए दहेज को शायद पूरा करना होता है
इसी सम्बन्ध में आपको एक व्यथा सुनाता हूँ
किसी और कि नहीं अपने पड़ोस के मिश्र जी के बारे में ही बताता हूँ
पड़ोस में आयी एक गाड़ी मिश्र जी ने फौरन यह बात ताड़ी
बेटे कि नयी नयी शादी हुई शायद , इसीलिए यह कार पड़ोस में खड़ी हुई
दिमाग में जैसे ही यह बात आयी,, शादी शुदा बेटे कि पुनः शादी कि योजना बनाई
बहू से तलाक का इकरार किया ,उसने फौरन इनकार किया
मौका देख बहू जला दी गयी और मिश्र जी के घर भी एक गाड़ी खड़ी हुई
मसलन बेटे कि पुनः शादी हुई
यह बात समाज के ठेकेदारों को शायद तब समझ में आएगी जब इसी तरह
उनकी भी बेटी एक दिन जलाई जायेगी !

Monday, March 22, 2010

नर हो न निराश करो मन को

नर हो न निराश करो मन को
कुछ काम करो कुछ काम करो
जग में रहके निज नाम करो
यह जन्म हुआ किस अर्थ अहो
समझो जिसमें यह व्यर्थ न हो
कुछ तो उपयुक्त करो तन को
नर हो न निराश करो मन को ।
संभलो कि सुयोग न जाए चला
कब व्यर्थ हुआ सदुपाय भला
समझो जग को न निरा सपना
पथ आप प्रशस्त करो अपना
अखिलेश्वर है अवलम्बन को
नर हो न निराश करो मन को ।
जब प्राप्त तुम्हें सब तत्त्व यहाँ
फिर जा सकता वह सत्त्व कहाँ
तुम स्वत्त्व सुधा रस पान करो
उठके अमरत्व विधान करो
दवरूप रहो भव कानन को
नर हो न निराश करो मन को ।
निज गौरव का नित ज्ञान रहे
हम भी कुछ हैं यह ध्यान रहे
सब जाय अभी पर मान रहे
मरणोत्तर गुंजित गान रहे
कुछ हो न तजो निज साधन को
नर हो न निराश करो मन को ।

Saturday, March 20, 2010

जो बीत गई

जो बीत गई सो बात गई !

जीवन में एक सितारा था,
माना, वह बेहद प्यारा था,
वह डूब गया तो डूब गया;
अंबर के आनन को देखो,
कितने इसके तारे टूटे,
कितने इसके प्यारे छूटे,
जो छूट गए फिर कहाँ मिले;
पर बोलो टूटे तारों पर
कब अंबर शोक मनाता है !
जो बीत गई सो बात गई !

जीवन में वह था एक कुसुम,
थे उस पर नित्य निछावर तुम,
वह सूख गया तो सूख गया;
मधुवन की छाती को देखो,
सूखीं कितनी इसकी कलियाँ,
मुरझाईं कितनी वल्लरियाँ
जो मुरझाईं फिर कहाँ खिलीं;
पर बोलो सूखे फूलों पर
कब मधुवन शोर मचाता है;
जो बीत गई सो बात गई !

जीवन में मधु का प्याला था,
तुमने तन-मन दे डाला था,
वह टूट गया तो टूट गया;
मदिरालय का आँगन देखो,
कितने प्याले हिल जाते हैं,
गिर मिट्टी में मिल जाते हैं,
जो गिरते हैं कब उठते हैं;
पर बोलो टूटे प्यालों पर
कब मदिरालय पछताता है !
जो बीत गई सो बात गई !

मृदु मिट्टी के हैं बने हुए,
मधुघट फूटा ही करते हैं,
लघु जीवन लेकर आए हैं,
प्याले टूटा ही करते हैं,
फिर भी मदिरालय के अंदर
मधु के घट हैं, मधुप्याले हैं,
जो मादकता के मारे हैं,
वे मधु लूटा ही करते हैं;
वह कच्चा पीने वाला है
जिसकी ममता घट-प्यालों पर,
जो सच्चे मधु से जला हुआ
कब रोता है, चिल्लाता है !
जो बीत गई सो बात गई !

हिम्मत करने वालों की कभी हार नही होती..

लेहरों से डरकर नौका पार नहीं होती..
हिम्मत करने वालों की कभी हार नही होती..
नन्ही चींटीं जब दाना लेकर चढती है..
चढती दीवारों पर सो बार फ़िसलती है..
मनका विश्वास रगॊं मे साहस भरता है..
चढकर गिरना, गिरकर चढना ना अखरता है..
मेहनत उसकी बेकार हर बार नहीं होती..
हिम्मत करने वालों की कभी हार नही होती..
डुबकियां सिंधुमें गोताखोर लगाता है..
जा जा कर खाली हांथ लौटकर आता है..
मिलते ना सहज ही मोती गेहरे पानी में..
बढता दूना विश्वास इसी हैरानी में..
मुट्ठी उसकी खाली हर बार नहीं होती..
हिम्मत करने वालों की कभी हार नही होती..
असफ़लता एक चुनौती है.. स्वीकार करो..
क्या कमी रेह गयी देखो और सुधार करो..
जब तक ना सफ़ल हो नींद-चैन को त्यागो तुम..
संघर्षोंका मैदान छोड मत भागो तुम..
कुछ किये बिना ही जयजयकार नहीं होती..
हिम्मत करने वालों की कभी हार नही होती..

karmveer

कर्मवीर

देख कर बाधा विविध, बहु विघ्न घबराते नहीं
रह भरोसे भाग के दुख भोग पछताते नहीं
काम कितना ही कठिन हो किन्तु उबताते नहीं
भीड़ में चंचल बने जो वीर दिखलाते नहीं
हो गये एक आन में उनके बुरे दिन भी भले
सब जगह सब काल में वे ही मिले फूले फले ।

आज करना है जिसे करते उसे हैं आज ही
सोचते कहते हैं जो कुछ कर दिखाते हैं वही
मानते जो भी हैं सुनते हैं सदा सबकी कही
जो मदद करते हैं अपनी इस जगत में आप ही
भूल कर वे दूसरों का मुँह कभी तकते नहीं
कौन ऐसा काम है वे कर जिसे सकते नहीं ।

जो कभी अपने समय को यों बिताते हैं नहीं
काम करने की जगह बातें बनाते हैं नहीं
आज कल करते हुये जो दिन गंवाते हैं नहीं
यत्न करने से कभी जो जी चुराते हैं नहीं
बात है वह कौन जो होती नहीं उनके लिये
वे नमूना आप बन जाते हैं औरों के लिये ।

व्योम को छूते हुये दुर्गम पहाड़ों के शिखर
वे घने जंगल जहां रहता है तम आठों पहर
गर्जते जल-राशि की उठती हुयी ऊँची लहर
आग की भयदायिनी फैली दिशाओं में लपट
ये कंपा सकती कभी जिसके कलेजे को नहीं
भूलकर भी वह नहीं नाकाम रहता है कहीं ।