वक्त मिलता तो हम भी खुद से कुछ बातें कर लेते
खुद को खुद से अलग कर देते
गर वक्त मिलता
वो राहें ही नहीं मिली
जिन पर हम चलना चाहते थे
वो मजिल ही नहीं दिखी
जिन्हे हम पाना चाहते थे !
ऐसा नहीं कि खूबियों का
निशां हममे न था
ऐसा नहीं कि में क्या हूँ
मुझे नहीं पता था
पर न राहें मिली
और न ही दिखी मंजिल
और हमने प्रयास करना
बंद कर दिया क्योंकि
मेरा प्रयास अब हो
गया था धूमिल !
जीवन कि आपा धापी में
मैं कहीं खो गया था
न जाने क्यों खुद से
दूर हो गया था
आज जब खुद को पहचाना
मैं क्या हूँ क्या था मेरा लछ्य
जिससे था में अब तक अनजाना
लेकिन अब देर हो चुकी थी
रास्तों पर न जाने कितनी
धुल जम चुकी थी
जिसके उपर चलना मुश्किल था
और मैं
घोडो कि रेस में शामिल था !
Monday, November 1, 2010
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