नर हो न निराश करो मन को
कुछ काम करो कुछ काम करो
जग में रहके निज नाम करो
यह जन्म हुआ किस अर्थ अहो
समझो जिसमें यह व्यर्थ न हो
कुछ तो उपयुक्त करो तन को
नर हो न निराश करो मन को ।
संभलो कि सुयोग न जाए चला
कब व्यर्थ हुआ सदुपाय भला
समझो जग को न निरा सपना
पथ आप प्रशस्त करो अपना
अखिलेश्वर है अवलम्बन को
नर हो न निराश करो मन को ।
जब प्राप्त तुम्हें सब तत्त्व यहाँ
फिर जा सकता वह सत्त्व कहाँ
तुम स्वत्त्व सुधा रस पान करो
उठके अमरत्व विधान करो
दवरूप रहो भव कानन को
नर हो न निराश करो मन को ।
निज गौरव का नित ज्ञान रहे
हम भी कुछ हैं यह ध्यान रहे
सब जाय अभी पर मान रहे
मरणोत्तर गुंजित गान रहे
कुछ हो न तजो निज साधन को
नर हो न निराश करो मन को ।
Monday, March 22, 2010
Subscribe to:
Post Comments (Atom)
रचयिता का नाम देना सदैव उचित रहता है...आभार मैथली शरण गुप्त जी की रचना की प्रस्तुति का!
ReplyDeleteगुप्त जी की रचना देखकर ही पोस्ट पर क्लिक किया था लेकिन उनका नाम नहीं देखकर आश्चर्य हुआ। अच्छी रचना पढ़ाने के लिए बधाई।
ReplyDeleteधन्यवाद लेकिन जिस तरह धुवां देखकर आग का पता अपनम आप ही लग जाता है उसी तरह गुप्त जी कि ये रचनायें अपने आप में ही गुप्त जी कि छबि का आभास कराती हैं .
ReplyDeleteइन सबके लिए गुप्त जी का वर्णन करने कि जरूरत नहीं.
लेकिन फिर भी मैं आगे से ध्यान रखूंगा.